अजय देवगन, तबू, और नीरज पांडे जैसे बॉलीवुड के नामी कलाकारों की एक फिल्म देखने की योजना निश्चित रूप से आकर्षक होती है। जब ‘Auron Mein Kahan Dum Tha’ का ट्रेलर देखा, तो कहानी कुछ हद तक प्रेडिक्टेबल लगी, लेकिन फिल्म से जुड़े दिग्गजों पर विश्वास रखते हुए इसे देखने का निर्णय लिया। फिल्म देखने के बाद यह एहसास हुआ कि शायद इसे न देखना बेहतर होता, क्योंकि नीरज पांडे ने 21वीं सदी में 20वीं सदी की फिल्म बनाई है। ऐसी फिल्में ओटीटी और यूट्यूब पर आसानी से मिल जाती हैं। इस फिल्म का रिव्यू यहीं खत्म कर सकती हूं, लेकिन 144 मिनट देखने के बाद थोड़ा दिल हल्का करने के लिए यह रिव्यू लिख रही हूं। अगर आप भी अजय देवगन, तबू, और नीरज पांडे के नाम से प्रभावित होकर यह फिल्म देखने का सोच रहे हैं, तो यह रिव्यू जरूर पढ़ें।
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कहानी
Auron Mein Kahan Dum Tha Review: यह कहानी कृष्णा (अजय देवगन) और वसुधा (तबू) की है। मुंबई के समंदर किनारे बन रहे बांद्रा-वर्ली सी लिंक को देखकर युवा कृष्णा (शांतनु माहेश्वरी) और युवा वसुधा (साई मांजरेकर) अपने पूरे जीवन को एक साथ बिताने का सपना देखते हैं। सी लिंक तो पूरा हो जाता है, लेकिन वे दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। जब कहानी फ्लैशबैक से वर्तमान में आती है, तो पता चलता है कि कृष्णा हत्या के आरोप में जेल में है और वसुधा अभिजीत (जिमी शेरगिल) से शादी करके अपनी जिंदगी आगे बढ़ा चुकी है। अब यह जानने के लिए कि कृष्णा जेल क्यों गया और क्या उसकी और वसुधा की अधूरी प्रेम कहानी 22 साल बाद पूरी हो पाएगी, आपको थिएटर जाकर ‘औरों में कहां दम था’ देखनी होगी।
Auron Mein Kahan Dum Tha Review: निर्देशन और राइटिंग
अगर नीरज पांडे की इस फिल्म का नाम ‘हमारी अधूरी कहानी पार्ट 2’ होता, तो भी यह ठीक चलता। फिल्म में लड़का जेल में क्यों जाता, इसका जवाब ट्रेलर देखकर एक छोटा बच्चा भी बता सकता है: लड़का लड़की के चक्कर में जेल जाता है। फिर भी, नीरज पांडे ने इस पुरानी कथा पर एक लंबी फिल्म बना डाली है। फिल्म को दिलचस्प बनाने के लिए, उन्होंने अपने अंदाज में एक ही सीन को तीन अलग-अलग दृष्टिकोणों से दिखाते हुए सस्पेंस और मिस्ट्री का तड़का लगाया है। लेकिन यह फिल्म थ्रिलर नहीं है, इसलिए इस तरह का एक्शन न तो कहानी को सही ठहरा पाता है और न ही दर्शकों को फिल्म से जोड़ पाता है।
फिल्म देखते हुए बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि इसी तरह की हिंदी फिल्मों की वजह से दर्शक शायद थिएटर में नहीं जा रहे हैं। प्रेडिक्टेबल कहानी, कमजोर स्क्रीनप्ले, और वही पुराना मेलोड्रामा देखकर मुझे तो ऐसा लगा कि पैसे वापस मिलना चाहिए, लेकिन फिर याद आया कि मैं प्रेस शो में यह फिल्म मुफ्त में देख रही हूं। फिर भी, अगर कोई फिर से मुझे मुफ्त में टिकट और पॉपकॉर्न दे कर भी यह फिल्म दिखाना चाहे, तो भी मैं इसे नहीं देखूंगी। फिल्म में ‘अरे मौसम थोड़े ही जो बदल जाऊंगा’ जैसे कुछ मजेदार डायलॉग्स हैं, लेकिन इसके तुरंत बाद कहानी में ऐसा कुछ होता है कि आप फिर से उससे जुड़ नहीं पाते। फिल्म की एकमात्र अच्छी बात इसके एक्टर्स की एक्टिंग है, लेकिन वह भी इसे बचा नहीं पाती।
एक्टिंग
अजय देवगन ने हमेशा की तरह शानदार प्रदर्शन किया है। उन्होंने अपनी बॉडी लैंग्वेज के जरिए कृष्णा के किरदार को गहराई से निभाया है। जेल में अपने दुश्मनों को चश्मा उतारकर साबुन की टिकिया की तरह पीटने वाले कृष्णा और वसुधा के सामने हड़बड़ाने वाले कृष्णा दोनों ही अजय ने बखूबी निभाए हैं। तबू ने भी अपनी शानदार अदाकारी का परिचय दिया है। हालांकि अजय और तबू से हमेशा बेमिसाल परफॉर्मेंस की उम्मीद रहती है, लेकिन शांतनु माहेश्वरी ने भी यंग कृष्णा के किरदार में हमें सरप्राइज किया है। उन्होंने इस किरदार को पूरी तरह से निभाया है। इससे पहले भी आलिया भट्ट की फिल्म ‘गंगूबाई’ में उन्होंने दर्शकों का दिल जीता था। उम्मीद है कि उन्हें बड़े पर्दे पर और भी अच्छे किरदार मिलेंगे।
देखे या न देखें
हाल ही में अजय देवगन की फिल्म ‘मैदान’ रिलीज हुई थी, जो बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा सफलता नहीं प्राप्त कर सकी, लेकिन यह एक बेहतरीन फिल्म थी। उस फिल्म के बाद अजय की अगली फिल्म से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन ‘औरों में कहां दम था’ उन उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती। कृष्णा और वसुधा की लव स्टोरी दिल को छूने में नाकाम रहती है। मुंबई की एक चॉल में शुरू हुई इस लव स्टोरी में फ्लैशबैक के दौरान बहुत सारी विवरणात्मक गड़बड़ियाँ हैं। उदाहरण के लिए, फिल्म में दिखाई गई चॉल सही लगती है, लेकिन इसके बाहर का जो स्ट्रक्चर दिखाया गया है, वह पूरी तरह से भिन्न है। मुंबई के चॉल और इसके बाहर दिखाए गए दृश्य पूरी तरह से अलग हैं। फ्लैशबैक में, जहां एक ओर सी लिंक का निर्माण दिखाया गया है, वहीं दूसरी ओर यंग कृष्णा और वसुधा को जिस चौपाटी पर गले मिलते हुए दिखाया गया है, वह जगह उस समय मौजूद ही नहीं थी। अगर आप मुंबई के निवासी हैं, तो आप ये छोटी-छोटी त्रुटियाँ आसानी से देख सकते हैं।
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कलाकारों की बेहतरीन एक्टिंग के बावजूद, ‘औरों में कहां दम था’ में कोई खास दम नहीं है। दर्शक अब इस तरह की फिल्मों से दूर हो चुके हैं, और मेकर्स ने 30 साल लेट कर दिया है। 30 साल पहले यह फिल्म बनाई जाती, तो शायद लोग इसे देखते और हिट भी हो जाती, लेकिन आज के दौर में स्वाइप राइट और स्वाइप लेफ्ट की दुनिया में यह कहानी किसी से भी नहीं जुड़ती। 144 मिनट की बोरियत से बचने के लिए आप इस फिल्म को स्किप कर सकते हैं।